भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने करियर में दो बड़ी भूमिकाएं निभाईं हैं, जिनका भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा है। वित्त मंत्री रहते हुए उन्होंने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी, वहीं प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें कई राजनीतिक विवादों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। लेकिन, दोनों भूमिकाओं में कौन सी अधिक प्रभावी थी? आइए इसे अछे से समझते हैं।
वौट्सऐप से जुड़े” target=”_blank” title=”वौट्सऐप से जुड़े”>वौट्सऐप से जुड़े
1991-1996: वित्त मंत्री का दौर

1991 में जब डॉ. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्रालय संभाला था तब देश गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा था। विदेशी मुद्रा भंडार खत्म होने की कगार पर था, महंगाई चरम पर थी, और अंतरराष्ट्रीय कर्ज चुकाने में देश असमर्थ हो रहा था। इस चुनौतीपूर्ण समय में उन्होंने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी।
उनके नेतृत्व में रुपया का अवमूल्यन किया गया था और व्यापार को उदार बनाया गया और सरकारी उपक्रमों का निजीकरण शुरू हुआ था। एफडीआई को बढ़ावा देते हुए, उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंच पर प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया था। उनकी नीतियों ने लाइसेंस राज का अंत किया था और पूंजी बाजार को मजबूत बनाया था।
आर्थिक नीतियों की सफलता
डॉ. सिंह ने भारतीय कंपनियों को वैश्विक बाजारों तक पहुंच प्रदान की थी। उन्हों ने बिजली, दूरसंचार, बैंकिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर में निजी निवेश को बढ़ावा दिया था। उनके प्रयासों के चलते 1990 के दशक में उद्योगों ने तेजी पकड़ी और महंगाई पर भी नियंत्रण पाया गया।
हालांकि, उनकी आर्थिक नीतियों की आलोचना भी हुई थी। कहा गया कि उन्होंने आय असमानता को बढ़ने दिया और गरीब तबके के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए थे। फिर भी, वित्त मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल को भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के लिए याद किया जाता है।
2004-2014: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
2004 में, कांग्रेस सरकार बनने के बाद, डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया था। उस समय भारत की अर्थव्यवस्था पहले से ही गति पकड़ चुकी थी। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जीडीपी में उल्लेखनीय वृद्धि की थी और भारत को दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनाया था।
प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोक कल्याणकारी योजनाओं जैसे मनरेगा और सूचना का अधिकार पर विशेष ध्यान दिया था। हालांकि, उन्हें गठबंधन सरकार के दबाव में कई फैसलों को टालना पड़ा। जीएसटी और एफडीआई जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर देरी के लिए उनकी सरकार की आलोचना हुई थी।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भूमिका
डॉ. सिंह ने अमेरिका, रूस और अन्य एशियाई देशों के साथ मजबूत संबंध बनाए थे। उनकी विदेश नीति का सबसे बड़ा योगदान भारत-अमेरिका परमाणु समझौता था, जिसे उन्होंने तमाम विरोधों के बावजूद पूरा किया था।
हालांकि, उनके दूसरे कार्यकाल में 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले जैसे भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी छवि को प्रभावित किया था। इन विवादों ने उनकी सरकार को पॉलिसी पैरालिसिस के रूप में भी देखा।
कौन अधिक प्रभावी?
फाइनेंस और पॉलिटिक्स के विशेषज्ञों का मानना है कि वित्त मंत्री के रूप में उनकी नींव ने प्रधानमंत्री के रूप में उनकी भूमिका को मजबूत किया था।
“वित्त मंत्री के तौर पर जो सुधार किए गए, वे प्रधानमंत्री के तौर पर उनके कार्यों की इमारत के मजबूत खंभे बने। चाहे मनरेगा हो, शिक्षा का अधिकार हो या भोजन का अधिकार, ये सभी उन्हीं नीतियों पर आधारित थे।”
राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई का मानना है कि 2009 में जब वे एक मजबूत जनादेश के साथ वापस आए, तो यह उनकी राजनीतिक सफलता का प्रमाण था।
इस तरह, डॉ. मनमोहन सिंह का योगदान दोनों भूमिकाओं में अद्वितीय है। उनके कार्यकाल ने भारत को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया, चाहे वह आर्थिक सुधार हो या अंतरराष्ट्रीय कूटनीति।
2025 में होंगे 2 सूर्य ग्रहण! जानें भारत में कब और कैसे देख सकते हैं?